सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृति यान्ति मामिकाम् ।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥7॥
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥8॥
यान्ति–विलीन होना; मामिकाम्-मेरी; कल्प-क्षये-कल्प के अन्त में; पुनः फिर से; तानि-उनमें; कल्प-आदो-कल्प के प्रारम्भ में; विसृजामि–व्यक्त करता हूँ; अहम्-मैं। प्रकृतिम्-भौतिक शक्ति; स्वाम्-मेरी निजी; अवष्टभ्य–प्रवेश करके; विसृजामि उत्पन्न करता हूँ; पुनः-पुन:-बारम्बार; भूत-ग्रमम्-असंख्य जीवन रूपों को; इमम्-इन; कृत्स्नम्-सबकोः; अवशम्-नियंत्रण से परे; प्रकृतेः-प्रकृति के; वशात्-बल में।
BG 9.7-8: हे कुन्ती पुत्र! एक कल्प के अन्त में सभी प्राणी मेरी आदि प्राकृत शक्ति में विलीन हो जाते हैं और अगली सृष्टि के प्रारंभ में, मैं उन्हें पुनः प्रकट कर देता हूँ। प्राकृत शक्ति का अध्यक्ष होने के कारण मैं बारम्बार असंख्य योनियों के जीवों को उनकी प्रकृति के प्रभाव के अनुसार पुनः-पुनः उत्पन्न करता हूँ।
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पिछले दो श्लोकों में श्रीकृष्ण ने यह व्याख्या की है कि सभी जीव उनमें स्थित रहते हैं। उनके इस कथन से यह प्रश्न उत्पन्न होता है-"जब महाप्रलय होती है तब समस्त संसार का संहार हो जाता है तब सभी प्राणी कहाँ जाते हैं?" इसका उत्तर इस श्लोक में दिया गया है।
पिछले अध्याय के सोलहवें से उन्नीसवें श्लोक में श्रीकृष्ण ने यह स्पष्ट किया था कि सृजन, स्थिति तथा प्रलय के चक्र का पुनरावर्तन होता रहता है। यहाँ 'कल्पक्षये' शब्द का अर्थ 'ब्रह्मा के जीवन काल का अन्त है।' ब्रह्मा के जीवन के 100 वर्ष जोकि पृथ्वी के 311 खरब 40 अरब वर्ष के बराबर है, पूर्ण होने के पश्चात सभी ब्रह्माण्डीय अभिव्यक्तियाँ विघटित होकर अव्यक्त अवस्था में चली जाती हैं। पंच महाभूत पंच तन्मात्राओं में विलीन हो जाते हैं और पंच तन्मात्राएँ अहंकार में, अहंकार महान में और महान माया शक्ति के आदि रूप प्रकृति में विलीन हो जाती है और प्रकृति परम पिता महाविष्णु के दिव्य शरीर में विलीन होकर उनमें स्थित हो जाती है। उस समय भौतिक सृष्टि की सभी जीवात्माएँ अव्यक्त प्रसुप्त जीवंत अवस्था में भगवान के दिव्य शरीर में स्थित हो जाती हैं।
उनका स्थूल और सूक्ष्म शरीर जड़ माया में विलीन हो जाता है। किन्तु उनका कारण शरीर बना रहता है। श्लोक 2.28 में उल्लिखित टिप्पणी में तीन प्रकार के शरीरों का विस्तार से वर्णन किया गया है। प्रलय के पश्चात जब भगवान पुनः संसार की रचना करते हैं तब माया (भौतिक शक्ति) प्रकृति-महान-अहंकार-पंचतन्मात्राओं-पंचमहाभूतों को विपरीत क्रम में प्रकट करती है तब जो जीवात्माएँ केवल कारण शरीर के साथ जीवंत सुप्त अवस्था में पड़ी थी उन्हें पुनः संसार में भेजा जाता है। अपने कारण शरीर के अनुसार वे पुनः सूक्ष्म और स्थूल शरीर प्राप्त करती हैं और ब्रह्माण्ड में जीवों की विभिन्न योनियाँ उत्पन्न होती हैं। इन विभिन्न जीव रूपों की प्रकृति विद्यमान विभिन्न ग्रहों में भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। कुछ ग्रह प्रणालियों में शरीर में अग्नि तत्त्व का प्रभुत्व होता है। जिस प्रकार से पृथ्वी ग्रह पर शरीर में पृथ्वी और जल का प्रभुत्व होता है। इस प्रकार शरीरों में ये विविधता उनकी सूक्ष्मता और जो क्रियाएँ वे सम्पन्न कर सकते हैं, के अनुसार होती हैं इसलिए श्रीकृष्ण इन्हें असंख्य जीवन रूप कहते हैं।